Wednesday, January 13, 2010

यदुवंश का नाश

श्री शुकदेव मुनि ने कहा – “हे राजन्! अब मैं आपको संक्षेप में आपके गुरुजनों के विषय में बताता हूँ। आपके परदादा राजा धृतराष्ट्र जन्म से अन्धे थे किन्तु अपनी लोलुपता के कारण वे बुद्धि से भी अन्धे हो गये थे। अधर्मी हो जाने के कारण उनकी मति मारी गई थी। उन्होंने आपके पितामह पाण्डवों के साथ बचपन से ही दुर्व्यवहार किया। उन्हें लाक्षागृह में मार डालने का षड़यंत्र किया। भरी सभा में आपकी दादी रानी द्रौपदी के केश खींचते हुये दुःशासन को नहीं रोका। अपने पुत्रोँ की सहायता से धर्मराज युधिष्ठिर का राज्य जुआ खेलने का कपट कर के छीन लिया। और अन्त में पाँचों पाण्डवों को वनवास दे दिया।

तेरह वर्षों तक यातनाएँ भोगने के बाद जब पाण्डवों ने अपना राज्य वापस माँगा तो भी नहीं लौटाया। श्री कृष्ण, भीष्म, विदुर आदि के समझाने पर भी काल के वश में होने से तथा पुत्रमोह के कारण उसकी बुद्धि नहीं फिरी। धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया।

महाभारत के इस युद्ध के से विदुर जी को, जो कि तीर्थयात्रा से लौटे थे, सन्ताप हुआ और वे पुनः तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। यमुना के तट पर उनकी भेंट भगवान श्री कृष्णचन्द्र के परम भक्त और सखा उद्धव जी से हुई और विदुर जी ने उनसे भगवान श्री कृष्णचन्द्र का हाल पूछा।

रुँधे कंठ से उद्धव ने बताया – “हे विदुर जी! महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्री कृष्णचन्द्र को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारे कारण से जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का आपस में लड़ कर के नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति को फेर दिया। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाये। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह से भगवान श्री कृष्णचन्द्र को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा। इस घटना के बाद भगवान श्री कृष्णचन्द्र महाप्रयाण कर के स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गये। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो के उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये।

“हे विदुर जी। भगवान श्री कृष्णचन्द्र रूपी सूर्य अस्त हो गये। उनकी लीलाओं का स्मरण करके मैं व्याकुल हो जाता हूँ। उन्होंने पूतना जैसी राक्षसी का संहार किया। कालिदह के नाग को नाथ कर यमुना के विषयुक्त जल को शुद्ध किया। गुरु सांदीपन से शिक्षा लेकर अल्पकाल में ही सांगोपांग वेदों को कंठस्थ कर लिया तथा गुरुदक्षिणा के रूप में उनके मृत पुत्रों को यमलोक से लाकर गुरु को प्रदान किया। कंस को मार कर अपने पिता वसुदेव जी को बन्धन मुक्त किया। अपने भक्तों को परमगति देने के साथ ही साथ शिशुपाल, कंस, जरासन्ध जैसे अपने शत्रुओं को भी परमगति प्रदान की। अपने बड़े भ्राता बलराम के साथ जरासन्ध को उसकी सत्रह अक्षौहिणी सेना सहित सत्रह बार परास्त किया। रुक्म को हरा कर उसकी बहन रुक्मिणी को हर कर ले आये। सात बिना नथे वृषभों को नाथ कर नाग्जिती से स्वयंवर किया। जाम्बवन्त को जीत कर जाम्बन्ती को अपनी पटरानी बनाया। सत्यभामा की प्रसन्नता के लिये इन्द्र का मान मर्दन कर पारिजात वृक्ष और सुधर्मा सभा को द्वारिका में ले आये। धर्म की रक्षा के लिये भौमासुर को मार कर उसकी सोलह सहस्त्र एक सौ कन्याओं को अपनी रानी बनाया और अपनी योगमाया से उतने ही रूप धारण कर उनसे विहार किया। उनसे अपने ही समान दस पुत्र उत्पन्न किये। महाभारत का युद्ध रचा कर स्वयं बिना अस्त्र धारण किये ही पाण्डवों के द्वारा अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार करवा दिया। वे ही भगवान श्री कृष्णचन्द्र आज इस भूमण्डल से अन्तर्ध्यान हो गये।”

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